Friday 17 February 2017

दर्पण

दर्पण में देख कर अपना विवर्ण मुख-
काँप उठा वह।
उसके मन का चोर उसकी आँखों से झांक रहा था।
वह मिला न सका अपनी आँखें-
अपने प्रतिबिम्ब की आँखों से।
घबड़ाकर बन्द कर ली उसने अपनी आँखें।
उसे लगा दर्पण कह रहा था-
मैं तो स्वभाववश आपका प्रतिबिम्ब दिखाता हूँ,
कैसे हैं आप बिना किसी दुराग्रह के बताता हूँ।
अचानक मार दिया एक पत्थर उसने भयभीत होकर,
दर्पण बिखर गया अनेक टुकड़ो में तब्दील होकर।
अब उसे अपना चेहरा दर्पण के हर टुकड़े में दिखाई दे रहा था-
और दर्पण चीख चीख कर कह रहा था।
श्रीमान्, वास्तविकता से जी न चुराइये,
जैसा दिखना चाहते हैं उसी तरह बन संवर कर-
मेरे सामने आइये।



जयन्ती प्रसाद शर्मा



Wednesday 1 February 2017

मन भावन बसंत आयौ

मन भावन बसंत आयौ। 
जड़ जड़ात मन है गयौ चेतन- 
हहर-हहर हहरायौ......................... मन भावन बसंत........। 
           दूर भई जाड़े की ठिठुरन, 
           लागे करन नृत्य मयूर बन।  
           हुई पल्लवित डाली डाली, 
           खिल गये फूल महक गये उपवन। 
पंच शर वार कियौ रति पति ने, 
उमंगि-उमंगि मन आयौ.................मन भावन बसंत..........।  
           चलत मंद-मंद पुरवाई, 
           मद मस्त नारि लेत अंगडाई।  
           कर श्रृंगार वसन पीतधार, 
           मिलन करन-प्रीतम सौ आई। 
घुसौ अनंग अंग भामिन के, 
नस-नस में सरसायौ.....................मन भावन बसंत............।
           खेत खलिहान सब हरित भये,
           लखि पीली सरसों मन मुदित भये। 
           देखि प्रकृति की छटा निराली,
           थल, नभ, जलचर सब सुखित भये। 
धानी आंचल धरती ने,
लहर-लहर लहरायौ........................मन भावन बसंत.............।
           उड़ि रहौ मकरंद भई सुरभित बयार,
           रस लोभी भंवरा मडरावै डार-डार। 
           फड़-फड़ा पंख उड़ चले पखेरू,
           मन होवै हर्षित अम्बर की सुन्दरता निहार। 
सुन-पक्षिन कौ कलरव, 
मन सरर-सररायौ..........................मन भावन बसंत.............।

जयन्ती प्रसाद शर्मा 

                   चित्र गूगल से साभार