Monday 29 June 2015

संघातिक हैं नयन तुम्हारे

संघातिक हैं नयन तुम्हारे,
जब से नजर मिलाई तुमने–
दुर्दिन आये हमारे . . . . संघातिक ......।

कनखइयों से मारी दीठ,
मुस्काईं फिर देकर पीठ।
उतराये सीधे मेरे मन,
चंचल नयन तुम्हारे ढीठ।

वक्र-भंगिमा अड़ गई मन में–
निकसी नहीं निकारे . . . . संघातिक ....।

बिन काजल कजरारे नैन,
कर देते हैं मुझको बेचैन।
फंस गई जान कफस में मेरी,
बदलते करवट बीतति रैन।

घूमूँ दिन भर बना बावला–
ज्यों ज्वारी धन हारे . . . . संघातिक ....।

अब और न मुझे सताओ तुम,
एक दया दिखलाओ तुम।
नहीं निहारो वक्र दृष्टि से,
मृत्यु बिन आई से मुझे बचाओ तुम।

बे मौत न मारा जाँऊ–
तेरी तिरछी नजर के मारे ....संघातिक ....।

जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Thursday 18 June 2015

चट पट झट

चंगू तेली मंगू तेली,
आपस में थे दोनों बेली।
थी गुड़िया रानी एक सहेली,
नहीं बीच में इनके कोई पहेली।
सब मिल कर खेला करते थे,
कूंद फांद झगड़ा नित-
नये नये वे करते थे।
वर्षों खेले संग संग सब,
शैशव बीता पता नही कब।
गुड़िया भी जवान हो गई,
तन कर वह कमान हो गई।
ठुमरी की वह तान हो गई,
मनचलों की वह जान हो गई।
मंगू के मन भा गई गुड़िया,
उसके तन मन पर छा गई गुड़िया।
किया प्रणय निवेदन मंगू ने,
गुड़िया बोली धत।
मंगू बोला चट,
चंगू बोला पट।
हो गई दोनों की शादी झट,
नतीजा चट, पट, झट।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Thursday 4 June 2015

संचेतना

संचेतना लोगों की सुप्त हो गई है,
संवेदना मानव की लुप्त हो गई है।
व्यथित नहीं करती किसी को किसी की व्यथा,
सांसारिक कर्म होते रहते हैं यथा।
कोई दुखी कर रहा होता करुण क्रंदन,
पास ही किसी का हो रहा होता अभिनन्दन।
अपनत्वता व्यक्ति में नुक्त हो गई है...भावना संवेदना की.........।
ऐसे ही नहीं कोई किसी को मानता,
स्वार्थ-परता में अनुपयोगी को नहीं कोई जानता।
नहीं सराहता कोई किसी की सहजता-
बिन सारोकार निकट पड़ौसी भी नहीं पहचानता।
अब प्रकृति लोगों की रुक्ष हो गई है...भावना संवेदना की.........।
हर व्यक्ति आज त्रस्त है जीवन में संघर्ष है,
उसका अपना है विचार और अपना ही विमर्ष है।
आज व्यक्ति व्यष्टि है, लोप हो गई समष्टिता,
जानने कुशल क्षेम अपनों की नहीं बरतता कोई शिष्टता।
एकला चलो की भावना हर मन में पुष्ट हो गई है...भावना संवेदना की.......।
महा नगरीय संस्कृति में खो गई सौमनस्यता,
हर मुख पर है तनाव, नि:शेष हो गई है सौख्यता।
दौड़-धूप बन गई है नियति,नहीं पल भर को विश्राम है,
हर पल काम ही काम है और आराम हराम है।
समझौतों से जिंदगी चिंतामुक्त हो गई है...भावना संवेदना की......।            
जयन्ती प्रसाद शर्मा