Thursday 30 April 2015

सृजन

सृजन के दौर से गुजरती हुई,
पोषण करने के कारण गर्भस्थ शिशु का-
तुम हो गई हो कृश-काय।
रक्तल्पता से तुम्हारा मुख हो गया है पीताभ-
अमलताश के पुष्प सा।
मातृत्व के सुखद अहसास से,
तुम्हारे पीत मुख की कान्ति हो गई है स्वर्णिम-
और वह दमक रहा है हेम सा।
तुम्हारी आँखों में पल रहे हैं-
आने वाले शिशु के मधुर स्वप्न।
तुम्हारी कोख में पल रहा बच्चा-
चलाता है जब धीरे धीरे पाँव,
तुम्हारा मन आत्म तुष्टि से भर जाता है।
तुम्हारा हाथ स्वत: ही चला जाता है उदर पर-
और तुम धीरे धीरे लगती हो उसे सहलाने।
तुम अपने अजन्मे शिशु की पुकार, माँ मुझे जन्म दे-
को सुन लेती हो अनहद नाद सा।
तुम अपने उदर को धीरे से थपथपा कर-
उसे दे देती हो परामर्श रखने को धैर्य-
प्रसवावधि आने तक।
तुम लावन्यमयी तो थी हीं,
अब हो गई हो ममतामयी, वात्सल्यमयी।
स्त्री होने की सार्थकता ने और पूर्णता ने तुम्हें-
गरिमामयी भी बना दिया है।
तुम्हारे इन नये कलेवरों के लिये-
तुम्हारा  हार्दिक वन्दन अभिनन्दन।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Monday 20 April 2015

भली करी जो तुम आये

भली करी जो तुम आये।
ज्येष्ठ मास की तप्त दुपहरी सा जीवन,
नही शीतलता का लेश, दग्ध हुआ तन और मन।
भावों की सरिता सूख गई है,
कल्पना शीलता रूठ गई है।
उष्ण प्रदेश से मेरे जीवन में बरखा बहार तुम लाये.......भली करी.......।
मेरा नीरस जीवन सरस बनाया,
मेरे सूखे मन उपवन को हरित बनाया। 
अपने सघन केश की छाया कर,
भीषण गर्मी से त्राण दिलाया।
किया सुवासित अपनी सांसों से, भाव मेरे महकाये........भली करी......।
चुस्त चीकनी मेरी खुरदरी खाल हो गई,
लड़खड़ाहट हो गई दूर सरपट चाल हो गई।
शुष्क कंठ से नही फूटता था कोई स्वर,
घुटी घुटी सी मेरी वाणी वाचाल हो गई।
अब तो उत्फुल्लित मन मेरा हर दम प्रेम तराना गाये.....भली करी......।
है यही कामना तुम बनी रहो मेरे जीवन में,
कोई प्रेम प्रसून खिलादो मेरे आँगन में।
वह होगा प्राणाधार हमारा-
बाँधेगा हम दोनों को प्यारे बंधन में।
अतिसुखदायक होगा वह पल अंकबद्ध कर उसको, जब तू लोरी गाये.......भली करी........। 

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Tuesday 7 April 2015

भीषण ताप से संतप्त मन को

भीषण ताप से संतप्त मन को मिली शान्ति,
फैला दिये जब तुमने अपने सघन केश। 
लगा जैसे घिर आई हो काली बदली-
घटाने को सूर्य की तेजस्विता। 
गर्मी से बेहाल मन को अनुभव हुआ सितलाई का। 
तुम्हारे मुख पर उभरे स्वेद कर्ण,
झलक रहे थे मोती से–
और बहता हुआ स्वेद लग रहा था जल धारा सा। 
उसके स्पर्श से शीतल हुए वायु के हलके झौंको से-
दूर हो गई मन की तपिश। 
उनमे घुली तुम्हारे बदन की गंध-
छा गई अंतस में।
तुम्हारी सांसों की महक से गमक उठा परिवेश। 
लगा सद्द विकसित कलियों की सुगन्ध-
फैल गई हो मन उपवन में। 
कामना है ऐसे ही फैला कर अपने केश–
देती रहो मुझे हर दुख के ताप से त्राण।
अपने स्वेद से सिक्त आकर कराती रहो शीतलता का अहसास-
और अपनी सांसों से महकाती रहो मन उपवन। 
तुम्हारे साथ रहने के अहसास से 
मै भुला दूंगा जीवन की हर कड़वाहट व दुखों की उत्तप्ता। 
जयन्ती प्रसाद शर्मा