Friday 20 March 2015

कुहरा

वातावरण में फैला घना कुहरा-
लगता है मनुष्य के अन्तस में भी छा गया है।
पास खड़े स्वजनों के चेहरे भी उसे-
दिखाई देते हैं काले धब्बे से।
असहनीय शीत से उसकी जड़ हो गई है-
भावना, संचेतना।
अपनों की भावों की गर्माहट भी-
नहीं कर पाती है कोई स्पंदन।
प्रतीक्षा है किसी बासंतिक बयार के झोंके की,
एक टुकड़ा गुनगुनी धुप की,
जो छांट देगी पसरे कुहासे को-
तन की सर्द जड़ता को।
वह देख सकेगा ठीक से हर आकृति,
अनुभव कर सकेगा हर मन की भावना की-
उष्णता।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Thursday 5 March 2015

मेरी तो होली होली

मेरी तो होली होली 
मेरे ही धोखे से दे गये मुझे भंग की गोली......मेरी तो ........।
भंग की तरंग, 
जागी मन में उमंग 
घोल लिये हें रंग,
पर होली खेलूँ किसके संग। 
देख रंग बिरंगे नर नारी मेरी तबियत डोली.....मेरी तो ......।
आयी इतने में साली,
लिये संग में घरवाली 
दोनों मुझको भरमाय रहीं,
दूर खडीं मुस्काय रहीं 
ताड़ के मौका मेरे ही रंग डाले मुझ पर-
बोलीं शुभ हो होली।

जयन्ती प्रसाद शर्मा



Wednesday 4 March 2015

होली है भई होली है

होली है भई होली है।
देख दृश्य टीवी पर होली के,
दादा जी हुरियाय गये
कर बातें याद अतीत की-
मन ही मन मुस्काय गये। 
उठे हुमक कर घोल रंग चुपके से,
दादी के ऊपर दियौ डाल।
और अंक में भरकर उनके-
मुख पर मल दियौ गुलाल। 
दादी के गाल हो गये लाल, 
बड़े जोर से हाँक लगाई होली है भई होली है ....होली है भई ...।
आँख तरेर दादी बोलीं,
ज्यों बन्दूक से निकली गोली। 
लाज नही आती है तुमको,
करते इस उम्र में ठिठोली।  
नशा हिरन हुआ दादाजी का गई बेकार भंग की गोली,
गर्दन झुकाय मिमियाये दादाजी होली है भई होली है ....होली है भई ....।
रोष भरी दादी अम्मा,
भूखी बाघिन सी लाग रहीं
ज्यों चूहे को बिल्ली देखे,
दादाजी को ताक रहीं। 
नहीं गुस्से का कोई ओर छोर,
चुपके से रंग लाई घोर। 
डाल रंग सिर के ऊपर से-
कर दिया दादाजी को सराबोर। 
हकबकाय गये दादाजी उठ बैठे लगाइ जोर,
हौले से मुस्काई दादीजी, प्रेम से बोलीं होली है भई होली है....होली है भई.. ।

जयन्ती प्रसाद शर्मा



Monday 2 March 2015

भ्रष्टाचार

इस देश में भ्रष्टाचार बढ़ गया है भयावह स्तर तक,
फैल गया है यह, सुविस्तारित वट वृक्ष सा।
बढ़ कर इसकी जटायें मिल गयी हैं जड़ों से-
और समा गई हैं गहरे, मानस मन की भूमि में।
भ्रष्टाचार का यह अकेला ही वृक्ष अब हो गया है सघन वन-
और बन गया है अभयारण्य, अनाचारियों का दुराचारियों का।
इसकी सघनता और हरित अंधकार में अपराधी सहज ही-
छिपा लेते है अपने आपको,
अपने कदाचारानुसार पापिष्ट ढूंढ लेते है अपने लिए आश्रय।
कुछ छिप जाते हैं इसके कोटरों में, चिपक जाते हैं कुछ इसकी जड़ों से-
कीड़े मकोड़ों से,
कुछ दिनांध उलूक से बैठ कर इसकी शाखों पर बिता देते हैं अपना निर्वासन-
और कुछ उल्टे लटक जाते हैं चमगादड़ों की तरह।
कुछ चयनित और निर्वाचितों को इसकी हरीतिमा करती है बहुत आकर्षित।
वे स्वत: ही खिचे चले आते हैं इसकी ओर बोधिसत्व पाने को।
अधिक धन प्राप्ति का मार्ग तलाशना ही है उनका बोधिसत्व
समझ नहीं आता कैसे हो पायेगा इस भ्रष्टाचार के वृक्ष का-
समूल नाश ?
कैसे पूरी हो पायेगी परिकल्पना-
भ्रष्टाचार मुक्त समाज के निर्माण की।
जयन्ती प्रसाद शर्मा