Friday 28 November 2014

देवदूत

रक्त से लथपथ पड़ा वह युवक,
देख रहा था अपने चारों ओर घिरे लोगों को-
कातर दृष्टि से
उसके पास बैठी युवती कर रही थी गुहार-
मदद के लिये।
लोग कर रहे थे तरह तरह की बातें।
उस युवक की कातर दृष्टि का,
उस युवती की गुहार का-
किसी पर नहीं पड़ रहा था कोई प्रभाव।
कुछ लोग अपने वस्त्रों पर रक्त के धब्बे लगने के भय से,
कुछ अन्य कारणों से नहीं हो रहे थे उन्मुख-
उनकी मदद के लिये।
यह घोर असम्वेदना ही तो थी।
एक आवारा सा युवक चीर कर लोगों की भीड़-
जा पहुँचा उन दोनों के पास।
उसने देखा लोगों को जलती नज़र से,
धिक्कारते हुये उन्हें उनकी संवेदनहीनता के लिये–
नफरत से थूक दिया जमीन पर,
अकेले ही उसने लाद लिया उस घायल युवक को अपने कन्धों पर-
और ले चला अस्पताल की ओर
वह युवती भर उठी कृतज्ञता से-
और दौड़ चली उसके पीछे।
वह आवारा सा युवक उसे दिखाई दे रहा था- 
देव दूत सा

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Friday 21 November 2014

यह तो कोई बात नहीँ है

यह तो कोई बात नही है।

आज मिलन की है ये बेला–

पर तू मेरे साथ नही है ..........यह तो..........।

मैं एक तरफ़ा प्रीत की रीत निभाता हूँ,

आना तेरा सम्भाव्य नहीं पर राहों में  फूल बिछाता हूँ।

मैं अपनी करनी पर हूँ पर तू अपनी जिद पर है।

मेरी इस प्रेम कहानी का उपसंहार प्रभु पर है।

बड़ी चतुर तुम नेहवती हो पर चलन प्रेम का ज्ञात नही है ............यह तो.....।

तेरी हर शोखी पर प्यार मेरा सरसता है,

लेकिन पर पीडक है तू तुझको, मेरा उत्पीड़न भाता है।

तिरछी नजरों से कर ना वार, ले आजमा खंजर की धार,

जाहे बहार तिल-तिल ना मार, कर दे फ़ना बस एक बार। 

इससे अच्छी तेरी मुझको होगी कोई सौगात नहीं है .....यह तो.....।

नहीं जलप्रपात सा उच्छ्खल है प्रेम मेरा,

शान्त झील के स्थिर जल जैसा दृढ नेह मेरा। 

मैं नहीं जोर शोर से अपनी प्रीत जताता हूँ,

हो जाये मिलन तेरा मेरा ईश्वर से नित्य मनाता हूँ।

मन ही मन करता मिलन कामना समझे तू जज्बात नहीं है .........यह तो.....।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Wednesday 12 November 2014

उनका आना

उनका आना मुझे आल्हादित कर देता है।
मेरे मन उपवन में खिलने लगते हैं फूल-
जिनकी सुगन्ध से मेरा तनमन महकने लगता है।
मन में ठाठे मारने लगता है भावनाओं का ज्वार ,
उसकी उतुंग लहरें मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को सराबोर कर देती है।
बातावरण में बहने लगती है बसंती बयार-
और मैं मस्ती में डूब जाता हूँ।
कानों में पक्षियों का मधुर कलरव घोल देता है मिठास,
आँखों में तैरने लगते हैं सुहाने स्वप्न-
और मैं उनकी तावीर में खो जाता हूँ।
अपनी बेखुदी में मुझ पर मौसम की किसी भी बेरुखी-
धूप, ताप, सर्दी, गर्मी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
आज उनकी वापसी की खबर ने,
हिला दिया है मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व।
मन उपवन में हो गया है पतझड़, कुम्हला गये है फूल,
थम गया है भावनाओं का ज्वार।
मै ख्वाबों की तावीर से निकलकर, स्वेदकण पोंछता हुआ-
दुखी मन खड़ा हुआ हूँ यथार्थ की धरा पर।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Thursday 6 November 2014

न कुछ तुम कहो न कुछ हम कहें

न कुछ तुम कहो न कुछ हम कहें-
बस यूँ ही चलते रहें।
ये दूरियां मिट जायेंगी, मंजिले मिल जायेंगी,
खामोशियाँ तेरी मेरी दिल की जुबाँ बन जायेंगी।
दिल की सदा पहुंचेंगी दिल तक-
आँखों से बातें हम करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
दिलरूंबा माहेजबीं मुझसे तुम रूठों नहीं,
मेरे दिल से करके दिल्लगी तुम मजे लूटो नही।
बे मौत मर जायेंगे हम-
नही बेरुखी हम से करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
आशिकों की भीड़ होगी, हम सा ना कोई पाओगी,
मर गये जो हम सनम, तुम बहुत पछताओगी।
न जिगर पर खंजर चला-
हम ये इल्तजा तुम से करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
जुल्म तू हम पर किये जा, हम बफा निभायेंगे,
तेरे दिये जख्मों को लेकर इस जहाँ से जायेंगे।
तुमको न हम रुसवा करेंगे-
यह वायदा तुमसे करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
जयन्ती प्रसाद शर्मा