Saturday 25 October 2014

तुम अब निशांत में आये

तुम अब निशांत में आये।
मैं रतिगल्भा सोलहश्रंगार कर,
रोती कलपत रही रातभर।
राह देखते दोनों नयना-
थकित हो गये मुंद गये पलभर।
वायु वेग से खुल गई खिड़की–
हुई भ्रान्ति तुम आये .........तुम अब निशांत........ ।
आस मुझे थी पिया मिलन की,
मेरे दिल की कली खिलन की,
नहीं आये तुम बनी विरहणी,
रात दुखों की, हुई मधुर मिलन की।
देख दशा गवाक्ष से मेरी-
कुटिलाई से रजनीकांत मुस्काये .....तुम अब निशांत........ ।
नहीं आना था तो कह जाते,
भाव प्रेम के नहीं जगाते।
धर लेती मैं धीरज मन में,
मुझे वियोगिनी नहीं बनाते।
क्या सुख मिल गया तुमको साजन–
मेरा हृदय क्लांत बनाये ........तुम अब निशांत...... ।
शुष्क हुये मेरे नयन बिल्लौरी,
कुम्हलाई ताम्बूल गिलौरी।
सूख गई भावों की सरिता,
दग्ध हुआ मेरा हृदय हिलोरी।
बीत गई अभिसार की बेला–
पुष्प गुच्छ मेरी वेणी के गये कांत मुरझाये ........तुम अब निशांत...... । 
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Sunday 19 October 2014

आओ मैं और तुम मिल जायें

आओ मैं और तुम मिल जायें,
एकांगी हो हम बन जायें।..................................आओ मै.............।
मैं मैं न रहूँ तुम तुम ना रहो,
मैं तुममें रहूँ तुम मुझमें रहो।
निज अस्तित्व मिटा कर आपस में-
एक जुस्त हो जायें..................................आओ मै.....................। 
मैं और तुम हो एक रूप,
मिलकर भोगेंगे सुख की छाया-
दुख की धूप।
साथ जियेंगे साथ मरेंगे का नारा बुलंद कर-
हम हमदम बन जायें..................................आओ मै....................।
हम प्रेम पथिक है संग संग चलते जायेंगे,
हाथ थाम कर दुर्गम पथ पर आगे ही बढ़ते जायेंगे।
अनजान बने हम हर मुश्किल से-
मिलकर कदम बढायें..................................आओ मै....................।
अपनी होगी एक ही ढपली एक राग,
चाहे फगवा हो या विहाग।
मैं और तुम हम ही रहकर-
गीत प्यार के गायें..................................आओ मै....................। 
जयन्ती प्रसाद शर्मा


Friday 10 October 2014

जहाँ चाह वहाँ राह नहीं है

जहाँ चाह वहाँ राह नहीं है, जहाँ राह है वहाँ चाह नहीं है,
सामने मंजिल है लेकिन संग कोई हमारा नहीं है।
एकाकी राही कितना चल पायेगा?
जीवन के झंझावातों से कितना लड़ पायेगा?
चाहे कितनी भी रहे चाह, साधन विहीन लक्ष्यहीन हो जायगा।
नैवेध आराधना को चाहिए।
दक्षिणा देवदर्शन, प्रदक्षिणा को चाहिए।
संशय नहीं इसमें तनिक भी–
सापेक्ष्य साधन साधना को चाहिए।
बिना किसी सहयोगी के मंजिल पाना आसान नहीं है......जहाँ चाह........।
साधन विहीन ही भाग्यहीन कहलाते है,
यधपि करते कठिन परिश्रम पर वांछित नहीं पाते हैं।
सहकार्यता, सहयोगिता से उत्पन्न साधन कीजिये,
स्वंय की ओर देश की विपन्नता हर लीजिये।
मन वांछित फल पाओगे, आएगा कुछ व्यवधान नहीँ है.......जहाँ चाह......।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Friday 3 October 2014

कुकुरमुत्ता

वक्त का फेर है अब मेरी बहुर आई है।
लोग देख कर करते थे नफरत,
कह कर बिल्ली का मूत–
हिकारत से देखते थे।
मैं हो गया हूँ मशरूम,
विशिष्ठ पौष्टिक सब्जियों में–
होने लगी है गिनती।
अब सुरुचि पूर्ण खाने वाले रईसों की–
थाली में स्थान पा गया हूँ।


जयन्ती प्रसाद शर्मा