Tuesday 10 June 2014

मैं कोई गीत गाना चाहता हूँ

मैं कोई गीत गाना चाहता हूँ
साध सकता क्या सुरों को-
आजमाना चाहता हूँ    .....................मैं कोई गीत.................।
फगवा गाऊँ,
कजली गाऊँ,
सोरठ गाऊँ,
ये गाऊँ या वो गाऊँ।
कोई मिलन का गीत गाकर,
तुमको सुनाना चाहता हूँ .....................मैं कोई गीत.................।
फटा बाँस सा कंठ मेरा,
गर्दभ जैसा स्वर उच्च मेरा।
संगीत की नहीं की साधना,
नहीं की बागेश्वरी की आराधना।
साथ तेरे कोई गीत,
गुनगुनाना चाहता हूँ .....................मैं कोई गीत.................।



जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Sunday 8 June 2014

मैंने पूंछा कब आओगे

मैंने पूंछा कब आओगे,
मेरे मन के सूखे उपवन में,
प्रेम सुधा कब बरसाओगे .................... मैंने पूंछा कब आओगे....
अतृप्त है मन संतप्त है तन,
तेरी बेरुखी से, अभिशप्त बना मेरा जीवन।
मिट गई जीने की चाह,
मर गया उत्साह।
आशा दीप जलाने को-
बोलो, बोलो तुम कब आओगे .................... मैंने पूंछा कब आओगे....
मुझको चाहत थी भोग की मुझे जोग दे दिया,
जोग दे दिया, वियोग दे दिया।
मन है बहुत उदास,
नहीं जीने की कोई आस।
विरहानल से पड़े फफोले-
बोलो मरहम कब लाओगे.................... मैंने पूंछा कब आओगे....


जयन्ती प्रसाद शर्मा 

रहना चाहता था मै निरापद

रहना चाहता था मैं निरापद, बचता रहा नदी, नाले और बम्बे से,
नहीं छुआ भड़कते शोलों को, रहा दूर बिजली के खम्बे से
बचते बचाते भी एक दिन भारी कयामत आ गई,
मेरी भोली नज़र उनकी शातिर आँख से टकरा गयी
आग सी तन मे लगी, झंकृत तार दिल के हो गये,
नहीं हो सके थे हम किसी के, अब उन्हीं के हो गये
लहराया जब आंचल उन्होंने, मैं उसकी झपट में आगया,
धीरे से बड़ी जोर का झटका मेरा दिल खा गया।
मैं आदमी था काम का उनके इश्क ने निकम्मा कर दिया,
लोगों ने बदल कर नाम मेरा अब हरम्मा कर दिया।
हे प्रभो न करना हाल ऐसे अपने किसी बन्दे के,
न डालना किसी को फेर में इस इश्किया निकम्मे के।

जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Thursday 5 June 2014

पर्यावरण दिवस

पर्यावरण प्रेमियों के दो विरोधी गुटों ने,
विश्व पर्यावरण दिवस मनाने के लिए,
लगा लिए अपने शिविर उस सघन छांव वाले वृक्ष के नीचे।
पालीथीन की झंडियों, बैनरों से पाट दिया परिसर।
समर्थकों की मोटर गाडियों के आने जाने से-
पेट्रोल के धुयें व धूल से भर गया वायुमंडल।
लाउडस्पीकरों के शोर से बुरी तरह गूँज उठा वह–
शांत वातावरण।
समारोह के उद्घाटन को लेकर दोनों गुटों के मान्यवरों के बीच-
हो गया कुछ विवाद।
वह विवाद परिवर्तित हो गया मारपीट व सशस्त्र संघर्ष में।
दोनों ओर के लोग चढ़ गये उस वृक्ष पर–
ओर काट छांट डाली उसकी शाखायें।
कुछ ही समय में स्थित सरोवर का जल हो गया प्रदूषित–
घायलों के अपने घाव धोने से।
जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Wednesday 4 June 2014

मन का बोझ

अपनों की उपेक्षा व असंवेदना ने कर दिया था उसे-
कुंठाग्रस्त।
लोगों के सर्द व्यवहार से उसके मन मस्तिष्क पर फैल गई थी-
बर्फ की एक मोटी परत।
जड़ हो गई थी उसकी संचेतना और जीवन हो गया था भार,
लगता था वह स्वयं ही ढो रही है अपनी लाश।
उनके भाव पूर्ण स्पर्श से, स्नेह की गर्माहट से-
विगलित होने लगी थी मन मस्तिष्क पर छाई बर्फ की परत।
मन की कुंठा अश्रु बन कर आँखों से लगी बहने।
हट गया था उसके मन का बोझ।
हल्का होकर लगी ऊँचे ऊँचे उड़ने और अच्छी बातें सोचने।
अब उसे हर पल सरस और अपना लगने लगा था।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

बजूका

मेरी हालत है एक बजूके जैसी। 
इसे अपने हाथ पैर चलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
परिन्दे व जानवर वहाँ किसी के होने के अहसास के चलते-
स्वयं ही भाग जाते हैं। 
कुछ दुष्ट उसके सिर पर बैठ कर बीट भी कर देते हैं। 
यहाँ कुछ लोग मेरा होना महसूस कर-
स्वयं ही मर्यादित हो जाते हैं। 
कुछ दुष्ट बुद्दि नकारते हुये मेरा अस्तित्व-
करते हैं मनमाना व्यवहार, 
और मुस्कराकर वक्र दृष्टि से देखते हुये 
मुझे मेरे बजूके होने का अहसास करा जाते हैं।

जयन्ती प्रसाद शर्मा