Wednesday 31 December 2014

आ गया नव वर्ष

आ गया नव वर्ष 

आ गया नव वर्ष।
प्रियवर आपको शुभकामना,
हम देते हैं सहर्ष।
      शुभ-सुख, चैन की वृष्टि होती रहे,
      धन धान्य की वृद्धि होती रहे।
है यह मंगल कामना हमारी,
आपका होता रहे उत्कर्ष.....आगया..................।
      नव वर्ष लाये आपके जीवन में बहार,
      होता रहे सम्मान गले में पड़ते रहें फूलों के हार।
स्थायित्व आप पा जायें,
नहीं रहें तदर्थ..............आ गया......................।
      पूर्ण होता रहे मनोरथ आपका,
      सफल होता रहे श्रम आपका।
हों फलीभूत आपके प्रयास,
जायें नहीं व्यर्थ............आ गया..................... ।
      आप सदा सर्वदा रहें सुखी,
      मिलती रहे आपको ख़ुशी।
दुख नहीं फटके पास आपके
नहीं होवे कोई अनर्थ।



जयन्ती प्रसाद शर्मा


             

Sunday 28 December 2014

आपका दिल हमारे पास है

आपका दिल हमारे पास है।
छिपा रखा है हमने उसे अपने दिल में।
मेरा यह दिल अति सुरक्षित है-
प्यारी प्यारी मूल्यवान वस्तुयें रखने के लिये।
नयनों की निगाहवानी से रक्षित मेरे दिल में-
नहीं संभव है किसी दुर्मति दुर्मना का सहज प्रवेश,
इसीलिये कुछ लोग मुझे संग दिल मानते हैं।
यह अन्दर से अति कोमल है।
मैं विश्वास दिलाता हूँ आपका दिल वहां रहेगा-
पुर सुकून।
वहां रहतीं हैं मेरी कोमल भावनायें भी।
उनके साथ वह कर सकता है अठखेलियां-
और भर सकता है उडान।
निवेदन है,मेरी इन सुकोमल भावनाओं से-
आपका दिल ना खेले कोई खेल।
वे इतनी कोमल हैं तनिक सी ठेस लगने से-
मर जायेंगी।
मेरा नर्म दिल भी सह ना सकेगा आघात,
टूट जायेगा और बिखर जायेगा वह।
मै टूटे और बिखरे दिल के साथ कितना जी सकूँगा-
यह आपके विचार का विषय है।

जयन्ती प्रसाद शर्मा     

Thursday 18 December 2014

आतंकबाद मुर्दाबाद

लाशों के ढेर पर खड़ा हुआ वह मना रहा था जश्न,
खून का लाल रंग उसे दे रहा था सुकून।
वह कभी मुस्कुराता था, करता था जोर से अट्टहास।
नफरत से आँखें उसकी सिकुड़ जातीं थीं,
और कभी खुशी से चमक जाती थी-
हजार वाट के बल्ब की तरह।
कभी किसी शव को मारता था ठोकर,
और कभी किसी लाश को रौंद देता था।
वह कर रहा था अपना भरपूर मनोरंजन।
एक मासूम के शव को टांग लिया उसने संगीन पर-
और करने लगा अट्टहास।
अचानक उसे लगा बच्चे की शक्ल है-
कुछ जानी सी, पहचानी सी-
और लगा उसे गौर से देखने।
उसका थम गया अट्टहास, जाग उठीं संवेदनायें-
और बुझ गये आँखों के बल्ब,
बहने लगा आँसुओं का सैलाब-
क्योंकि वह उसका ही लख्ते-जिगर था।
लरजती आवाज में वह लगाने लगा बेसाख्ता नारे-
आतंकबाद मुर्दाबाद, आतंकबाद मुर्दाबाद।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Saturday 13 December 2014

मुझको यारो माफ करना


मुझको यारो माफ करना मैं नशे में हूँ,
होश में मुझको न लाना मैं मजे में हूँ।
दीन दुनिया की नहीं मुझको खबर,
अह्सासे दर्द से हूँ बेखबर।
कोई कहता है क्या, हूँ इससे बेअसर,
मै हूँ उसकी राह में, मंजिल पर मेरी नजर।
प्रेम रस मैंने पिया है, प्रिय उसे मैं हूँ..........मुझको यारो .......।
हर साँस मेरी है उसकी अमानत,
न बरदास्त मुझको कोई करे उसमें खयानत।
मन में मेरे गहरे गड़ी है उसकी मूरत,
नयनों में बस गई है उसकी सूरत।
खयालों में मेरे है वह, मैं खयालों में उसके हूँ......मुझको यारो ...।

जयन्ती प्रसाद शर्मा  

  

Saturday 6 December 2014

गंगा माहात्यम(गंगा आरती)

गंगा माता मोक्ष दायिनी,
भक्ति मुझे दो अनपायिनी। 
नहीं साधारण, तेरा जल है गंगाजल,
मज्जन कर जो करें आचमन-
उनको तू दे देती अमित फल। 
कलुष तन मन का तू हर लेती,
निर्मल सर्वजनों को कर देती।
रोग शोक को दूर भगाती,
पाप नाशिनी तू कहलाती। 
जय तेरी माँ मुक्तिदायिनी................................. गंगा माता..................... ।
श्री विष्णु का तू चरणोदक,
जग कल्याण को तो उद्धत।
छोड़ स्वर्ग धरा पर आई,
रोका वेग तेरा श्री शिव ने-
जटा में उनकी तू समाई।
करी विनय जब भागीरथ ने,
पुनि धरती पर माँ गंगे आई।
जय माँ गंगे निर्माल्य दायिनी................................गंगा माता.................।
जीवनाधार तू भारत भू का,
हमको है वरदान प्रभु का।
तेरे बिन कुछ भी नहीं पूरा,
भारत का चित्र चरित्र अधूरा।
सदियों से बहती अविरल धारा-
इस धरती को सिंचित करती है,
होता पैदा प्रचुर धान्य-
तू क्षुधा हमारी हरती है।
जय जय माँ धन धान्य दायिनी................................. गंगा माता...................।

जयन्ती प्रसाद शर्मा


Friday 28 November 2014

देवदूत

रक्त से लथपथ पड़ा वह युवक,
देख रहा था अपने चारों ओर घिरे लोगों को-
कातर दृष्टि से
उसके पास बैठी युवती कर रही थी गुहार-
मदद के लिये।
लोग कर रहे थे तरह तरह की बातें।
उस युवक की कातर दृष्टि का,
उस युवती की गुहार का-
किसी पर नहीं पड़ रहा था कोई प्रभाव।
कुछ लोग अपने वस्त्रों पर रक्त के धब्बे लगने के भय से,
कुछ अन्य कारणों से नहीं हो रहे थे उन्मुख-
उनकी मदद के लिये।
यह घोर असम्वेदना ही तो थी।
एक आवारा सा युवक चीर कर लोगों की भीड़-
जा पहुँचा उन दोनों के पास।
उसने देखा लोगों को जलती नज़र से,
धिक्कारते हुये उन्हें उनकी संवेदनहीनता के लिये–
नफरत से थूक दिया जमीन पर,
अकेले ही उसने लाद लिया उस घायल युवक को अपने कन्धों पर-
और ले चला अस्पताल की ओर
वह युवती भर उठी कृतज्ञता से-
और दौड़ चली उसके पीछे।
वह आवारा सा युवक उसे दिखाई दे रहा था- 
देव दूत सा

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Friday 21 November 2014

यह तो कोई बात नहीँ है

यह तो कोई बात नही है।

आज मिलन की है ये बेला–

पर तू मेरे साथ नही है ..........यह तो..........।

मैं एक तरफ़ा प्रीत की रीत निभाता हूँ,

आना तेरा सम्भाव्य नहीं पर राहों में  फूल बिछाता हूँ।

मैं अपनी करनी पर हूँ पर तू अपनी जिद पर है।

मेरी इस प्रेम कहानी का उपसंहार प्रभु पर है।

बड़ी चतुर तुम नेहवती हो पर चलन प्रेम का ज्ञात नही है ............यह तो.....।

तेरी हर शोखी पर प्यार मेरा सरसता है,

लेकिन पर पीडक है तू तुझको, मेरा उत्पीड़न भाता है।

तिरछी नजरों से कर ना वार, ले आजमा खंजर की धार,

जाहे बहार तिल-तिल ना मार, कर दे फ़ना बस एक बार। 

इससे अच्छी तेरी मुझको होगी कोई सौगात नहीं है .....यह तो.....।

नहीं जलप्रपात सा उच्छ्खल है प्रेम मेरा,

शान्त झील के स्थिर जल जैसा दृढ नेह मेरा। 

मैं नहीं जोर शोर से अपनी प्रीत जताता हूँ,

हो जाये मिलन तेरा मेरा ईश्वर से नित्य मनाता हूँ।

मन ही मन करता मिलन कामना समझे तू जज्बात नहीं है .........यह तो.....।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Wednesday 12 November 2014

उनका आना

उनका आना मुझे आल्हादित कर देता है।
मेरे मन उपवन में खिलने लगते हैं फूल-
जिनकी सुगन्ध से मेरा तनमन महकने लगता है।
मन में ठाठे मारने लगता है भावनाओं का ज्वार ,
उसकी उतुंग लहरें मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को सराबोर कर देती है।
बातावरण में बहने लगती है बसंती बयार-
और मैं मस्ती में डूब जाता हूँ।
कानों में पक्षियों का मधुर कलरव घोल देता है मिठास,
आँखों में तैरने लगते हैं सुहाने स्वप्न-
और मैं उनकी तावीर में खो जाता हूँ।
अपनी बेखुदी में मुझ पर मौसम की किसी भी बेरुखी-
धूप, ताप, सर्दी, गर्मी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
आज उनकी वापसी की खबर ने,
हिला दिया है मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व।
मन उपवन में हो गया है पतझड़, कुम्हला गये है फूल,
थम गया है भावनाओं का ज्वार।
मै ख्वाबों की तावीर से निकलकर, स्वेदकण पोंछता हुआ-
दुखी मन खड़ा हुआ हूँ यथार्थ की धरा पर।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Thursday 6 November 2014

न कुछ तुम कहो न कुछ हम कहें

न कुछ तुम कहो न कुछ हम कहें-
बस यूँ ही चलते रहें।
ये दूरियां मिट जायेंगी, मंजिले मिल जायेंगी,
खामोशियाँ तेरी मेरी दिल की जुबाँ बन जायेंगी।
दिल की सदा पहुंचेंगी दिल तक-
आँखों से बातें हम करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
दिलरूंबा माहेजबीं मुझसे तुम रूठों नहीं,
मेरे दिल से करके दिल्लगी तुम मजे लूटो नही।
बे मौत मर जायेंगे हम-
नही बेरुखी हम से करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
आशिकों की भीड़ होगी, हम सा ना कोई पाओगी,
मर गये जो हम सनम, तुम बहुत पछताओगी।
न जिगर पर खंजर चला-
हम ये इल्तजा तुम से करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
जुल्म तू हम पर किये जा, हम बफा निभायेंगे,
तेरे दिये जख्मों को लेकर इस जहाँ से जायेंगे।
तुमको न हम रुसवा करेंगे-
यह वायदा तुमसे करें.............. न कुछ तुम कहो...................।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Saturday 25 October 2014

तुम अब निशांत में आये

तुम अब निशांत में आये।
मैं रतिगल्भा सोलहश्रंगार कर,
रोती कलपत रही रातभर।
राह देखते दोनों नयना-
थकित हो गये मुंद गये पलभर।
वायु वेग से खुल गई खिड़की–
हुई भ्रान्ति तुम आये .........तुम अब निशांत........ ।
आस मुझे थी पिया मिलन की,
मेरे दिल की कली खिलन की,
नहीं आये तुम बनी विरहणी,
रात दुखों की, हुई मधुर मिलन की।
देख दशा गवाक्ष से मेरी-
कुटिलाई से रजनीकांत मुस्काये .....तुम अब निशांत........ ।
नहीं आना था तो कह जाते,
भाव प्रेम के नहीं जगाते।
धर लेती मैं धीरज मन में,
मुझे वियोगिनी नहीं बनाते।
क्या सुख मिल गया तुमको साजन–
मेरा हृदय क्लांत बनाये ........तुम अब निशांत...... ।
शुष्क हुये मेरे नयन बिल्लौरी,
कुम्हलाई ताम्बूल गिलौरी।
सूख गई भावों की सरिता,
दग्ध हुआ मेरा हृदय हिलोरी।
बीत गई अभिसार की बेला–
पुष्प गुच्छ मेरी वेणी के गये कांत मुरझाये ........तुम अब निशांत...... । 
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Sunday 19 October 2014

आओ मैं और तुम मिल जायें

आओ मैं और तुम मिल जायें,
एकांगी हो हम बन जायें।..................................आओ मै.............।
मैं मैं न रहूँ तुम तुम ना रहो,
मैं तुममें रहूँ तुम मुझमें रहो।
निज अस्तित्व मिटा कर आपस में-
एक जुस्त हो जायें..................................आओ मै.....................। 
मैं और तुम हो एक रूप,
मिलकर भोगेंगे सुख की छाया-
दुख की धूप।
साथ जियेंगे साथ मरेंगे का नारा बुलंद कर-
हम हमदम बन जायें..................................आओ मै....................।
हम प्रेम पथिक है संग संग चलते जायेंगे,
हाथ थाम कर दुर्गम पथ पर आगे ही बढ़ते जायेंगे।
अनजान बने हम हर मुश्किल से-
मिलकर कदम बढायें..................................आओ मै....................।
अपनी होगी एक ही ढपली एक राग,
चाहे फगवा हो या विहाग।
मैं और तुम हम ही रहकर-
गीत प्यार के गायें..................................आओ मै....................। 
जयन्ती प्रसाद शर्मा


Friday 10 October 2014

जहाँ चाह वहाँ राह नहीं है

जहाँ चाह वहाँ राह नहीं है, जहाँ राह है वहाँ चाह नहीं है,
सामने मंजिल है लेकिन संग कोई हमारा नहीं है।
एकाकी राही कितना चल पायेगा?
जीवन के झंझावातों से कितना लड़ पायेगा?
चाहे कितनी भी रहे चाह, साधन विहीन लक्ष्यहीन हो जायगा।
नैवेध आराधना को चाहिए।
दक्षिणा देवदर्शन, प्रदक्षिणा को चाहिए।
संशय नहीं इसमें तनिक भी–
सापेक्ष्य साधन साधना को चाहिए।
बिना किसी सहयोगी के मंजिल पाना आसान नहीं है......जहाँ चाह........।
साधन विहीन ही भाग्यहीन कहलाते है,
यधपि करते कठिन परिश्रम पर वांछित नहीं पाते हैं।
सहकार्यता, सहयोगिता से उत्पन्न साधन कीजिये,
स्वंय की ओर देश की विपन्नता हर लीजिये।
मन वांछित फल पाओगे, आएगा कुछ व्यवधान नहीँ है.......जहाँ चाह......।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Friday 3 October 2014

कुकुरमुत्ता

वक्त का फेर है अब मेरी बहुर आई है।
लोग देख कर करते थे नफरत,
कह कर बिल्ली का मूत–
हिकारत से देखते थे।
मैं हो गया हूँ मशरूम,
विशिष्ठ पौष्टिक सब्जियों में–
होने लगी है गिनती।
अब सुरुचि पूर्ण खाने वाले रईसों की–
थाली में स्थान पा गया हूँ।


जयन्ती प्रसाद शर्मा






Saturday 27 September 2014

मेरे विचार आवारा बादल से

मेरे विचार आवारा बादल से आते जाते रहते हैं,
कभी घने हो जाते हैं कभी छितरा जाते हैं।
कभी बहुत  ऊँचा उठ जाते,
लोग समझ नहीं मुझको पाते।
गूढ़ विचारक नहीं कोई मुझसा,
अक्सर भ्रम में वे पड़ जाते।
मेरे इस अदने से कद को बहुत बढ़ा जाते हैं.............मेरे विचार.....।
शुभ्र बदली से दिखते कभी,
शुभ विचार कहते सभी।
कभी दिखते काले बादल से,
निकले हो दल दल से जैसे अभी।
मेरे विचारों से ही लोग मुझे ऊँचा-नीचा कह जाते  हैं..मेरे विचार.....।
कभी पलायनवादी हो जाते,
हिंसक लोगों से मुझे जुड़ाते।
बातें समानता की करने से,
साम्यवादी मुझे बनाते।
नहीं समझ मुझे किसी वाद की पर वादों में उलझाते हैं...मेरे विचार..।
स्थिर नहीं रहते मेरे विचार,
राजनीति, कभी धर्मनीति का करते प्रचार।
कभी लोभ में पड़कर अनीति के,
बन जाते है पक्षकार।
अवसर की रहने से तलाश में, अवसरवादी मुझे बनाते हैं..मेरे विचार..।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Friday 19 September 2014

मेरी बारी कब आयेगी?

मेरी बारी कब आयेगी?
लोग आते हैं करते है सिद्ध औचित्य अपनी त्वरितता का-
और मै उन्हें अपने से आगे जाने का रास्ता दे देता हूँ। 
कुछ लोग कातर दृष्टि से देखते हुये, बने हुये दीनता की प्रतिमूर्ति, 
कर जाते है मुझे बाईपास-
और मै खड़ा हुआ देखता रह जाता हूँ। 
कोई अपनी धूर्तता और लेकर दबंगई का सहारा, 
मुझे धकियाता हुआ, मुस्कराकर आगे बढ़ जाता है। 
मै लटकाये हुये गले मे सिद्धांन्तों का ढोल, 
आज भी खड़ा हुआ हूँ वहीँ जहाँ था वर्षों पहले, 
सोचता हुआ, मेरी बारी कब आयेगी ?

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Tuesday 9 September 2014

उनसे मेरी बंदगी है

उनसे मेरी बंदगी है, दुआ है, सलाम भी है,
नमस्ते है, जुहार है, राम राम भी है।
न कोई लेने जाता है,
न कोई देने आता है।
हमारे बीच बस-
इंसानियत का नाता है।
वे नहीं मेरे कोई मै नहीं उनका कोई,
पर उनकी हर खैर ओ खबर-
मेरी ख़ुशी को पयाम भी है.......... उनसे मेरी................. ।
हर किसी की जिन्दगी खुशहाल हो,
न किसी को कोई रंज-ओ-मलाल हो।
हो पुर सुकून अवाम सब-
और गमों से नहीं कोई बेहाल हो।
मैं नहीं जानता साधना, आराधना,
पर कामना हर किसी के उत्कर्ष की-
मेरी राह भी है मुकाम भी है.......... उनसे मेरी................. ।
न कोई अपना है न पराया है,
हर किसी में रब समाया है।
कर सके तो कर खिदमत हर इन्सान की-
क्यों कि आनी जानी यह माया है।
माया पर न इठला, पाकर न इसे इतरा,
यह आते हुये देती है सुख, जाते हुये देती है दुख-
और कर देती गुमनाम भी है.......... उनसे मेरी................. । 


जयन्ती प्रसाद शर्मा

Monday 1 September 2014

बड़े प्यार से मिलते हैं

वे जब भी मिलते हैं बड़े प्यार से मिलते हैं।
मैं भी उन्हें सम्मान देता हूँ-
बड़े भाई सा।
लेकिन उन्होंने किया है मेरा उपयोग सदैव-
एक मोहरे की तरह।
वे जब मेरा जैसा उपयोग चाहते हैं,
मुझे इंगित कर देते हैं और मैं उनकी चाहत जैसा-
व्यवहार करने लगता हूँ।
भीड़ में कर लेता हूँ उनके चरण स्पर्श।
मेरे चरण स्पर्श करते ही लोगों का लग जाता है ताँता-
उनके चरण स्पर्श करने को।
उनके इशारे पर, जब वे उचित समझते हैं,
मैं उन्हें पहना देता हूँ फूलों का हार-
और वहाँ फूलों के हारों का ढेर लग जाता है।
आवश्यकता पड़ने पर मैं उनका नाम लेकर-
जोर जोर से जिंदाबाद के नारे भी लगा देता हूँ।
प्रत्युत्तर में उनके जिंदाबाद के नारों से-
परिसर गुंजायमान हो जाता है।

जयन्ती प्रसाद शर्मा    

Wednesday 27 August 2014

मेरी चाह

साहित्य समाज का दर्पण है-
और समाज मनुष्य के व्यक्तित्व का कृतित्व का। 
मैं इस कद्दावर समाज में, साहित्य में प्रतिबिम्ब उसके बिम्ब में,
मैग्नीफाइंग ग्लास की मदद से भी नहीं ढूँढ़ पाता हूँ-
अपना बजूद। 
काशः समाज में साहित्याकाश में मेरा भी होता अस्तित्व-
भले ही एक बिन्दु सा। 
उम्र के इस पड़ाव पर मेरी यह चाहत-
बेवक्त शहनाई बजने जैसी ही है। 
इस इन्द्रिय शैथिल्य के समय में,
मैं अपनी प्रकम्पित टांगों पर कैसे खड़ा हो सकूँगा-
उचक सकूँगा दिखाने को अपना चेहरा। 
बिना किसी संबल के यह संभव नहीं है। 
कौन माननीय मुझे कंधे पर बैठाकर, उचककर-
मुझे स्थापित करने का करेगा सात्विक प्रयत्न। 
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Thursday 14 August 2014

आ गया पन्द्रह अगस्त

आ गया पन्द्रह अगस्त,
हुआ इसी दिन कभी न होने वाला-
ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त .......आ गया......।
गाँधी जी ने फूका मंत्र,
बहुत बुरी है पराधीनता,बुरा है भारत में परतंत्र।
जगी चेतना जन मानस की,
सब लगे चाहने होना स्वतंत्र।
अंग्रेजो भारत छोड़ो की हुंकार पर–
हो गये अंग्रेजों के हौसले पस्त  .....आ गया....।
जनता की दहाड़ पर अंग्रेजों ने–
जाने की तैयारी कीनी,
पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को
भारत को सत्ता दीनी।
शासन सँभालने की तैयारी में–
कर्णधार देश के हो गये व्यस्त ...आ गया.....।
अंग्रेजों का हुआ पराभव ,
हुआ स्वराज्य का भारत में उद्धव।
हुई दिवाली सी घर घर में,
हरजन मना रहा था उत्सव।
लाल किले पर देख तिरंगा-
भारत वासी हो गये मस्त    ......आ गया......।
मदमस्त नहीं तुम हो जाना,
मत सपनों में खो जाना।
दुश्मन की मीठी बातों से–
कर्तव्य विमुख मत हो जाना।
तुम भावी कर्ण धार देश के –
कर देना दुश्मन की हर चाल ध्वस्त......आ गया........।


जयन्ती प्रसाद शर्मा 


Wednesday 13 August 2014

जश्न-ए-आजादी में भूल ना जाना

जश्न-ए-आजादी में भूल न जाना,
घात लगाये बैठे दुश्मन, तुमको उनसे देश बचाना।
कुछ सहमे कुछ डरे हुये हैं,
कुछ ईर्ष्या से जले हुये हैं।
प्रेम प्रपंच का ओढ़ लवादा,
विषधर आस्तीनों में छिपे हुये हैं।
बिना निरख के बिना परख के–
मत ऐरे गेरे को गले लगाना  .........घात  लगाये........।
हमने देश की आजादी,
नही दान में पाई है।
इस एक खुशी के बदले–
लाखों ने जान गँवाई हैं
हर पल हरदम रहना चौकस पड़ गलफ़त में-
नहीं भुलाना               ...........घात  लगाये........।
घर घर खुशियों के दीप जले हैं,
भोली आँखों में स्वप्न पले हैं।
हर मुख पर मुस्कान खिली है,
देश को नयी पहचान मिली है।
बनी रहे पहचान देश की-
सतत् प्रयत्न तुम करते जाना    ......घात  लगाये.......।
यह धरती वीर शहीदों की है,
गाँधी,सुभाष,भगत सिंह की है।
नेहरु शास्त्री ने इसे संवारा,
विश्व-पटल पर देश उभारा।
देखो शान न जाये इसकी–
पड़ जाये चाहे जान गँवाना   .............घात लगाये.......।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

चित्र गूगल से साभार