साहित्य समाज का दर्पण है-
और समाज मनुष्य के व्यक्तित्व का कृतित्व का।
मैं इस कद्दावर समाज में, साहित्य में प्रतिबिम्ब उसके बिम्ब में,
मैग्नीफाइंग ग्लास की मदद से भी नहीं ढूँढ़ पाता हूँ-
अपना बजूद।
काशः समाज में साहित्याकाश में मेरा भी होता अस्तित्व-
भले ही एक बिन्दु सा।
उम्र के इस पड़ाव पर मेरी यह चाहत-
बेवक्त शहनाई बजने जैसी ही है।
इस इन्द्रिय शैथिल्य के समय में,
मैं अपनी प्रकम्पित टांगों पर कैसे खड़ा हो सकूँगा-
उचक सकूँगा दिखाने को अपना चेहरा।
बिना किसी संबल के यह संभव नहीं है।
कौन माननीय मुझे कंधे पर बैठाकर, उचककर-
मुझे स्थापित करने का करेगा सात्विक प्रयत्न।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
और समाज मनुष्य के व्यक्तित्व का कृतित्व का।
मैं इस कद्दावर समाज में, साहित्य में प्रतिबिम्ब उसके बिम्ब में,
मैग्नीफाइंग ग्लास की मदद से भी नहीं ढूँढ़ पाता हूँ-
अपना बजूद।
काशः समाज में साहित्याकाश में मेरा भी होता अस्तित्व-
भले ही एक बिन्दु सा।
उम्र के इस पड़ाव पर मेरी यह चाहत-
बेवक्त शहनाई बजने जैसी ही है।
इस इन्द्रिय शैथिल्य के समय में,
मैं अपनी प्रकम्पित टांगों पर कैसे खड़ा हो सकूँगा-
उचक सकूँगा दिखाने को अपना चेहरा।
बिना किसी संबल के यह संभव नहीं है।
कौन माननीय मुझे कंधे पर बैठाकर, उचककर-
मुझे स्थापित करने का करेगा सात्विक प्रयत्न।
जयन्ती प्रसाद शर्मा